क्या लेखक इंसान नहीं होता.....?

मोहल्ले के बच्चो के साथ एक छुट्टी के दिन क्रिकेट खेल रहा था... अचानक एक आवाज़ आई ........अरे जैन साहब ... ये क्या, इतना बड़ा लेखक बच्चो के साथ बच्चा बन गया... मै मुस्कुरा कर अपने घर में आ गया और अपने सच्चे हमराही यानि शब्दों के साथ खेलने लगा............... कुछ दिन बाद मेरे कुछ मित्र मुझसे मिलने आये ... मै अपने चिर परिचित मस्त अंदाज़ में था... मै उनसे देशी भाषा में या यु कहू कि टपोरी भाषा में हंसी मजाक कर रहा था और वो मेरा मुह देख रहे थे जैसे ...... चिड़ियाघर में किसी शेर को बाबा सहगल के गाने पर नाचते हुए देख लिया हो........  मै समझ गया... यहाँ भी मेरा लेखक मेरे आड़े आ गया...
इन्टरनेट का जमाना है .... इन्टरनेट पर आज युवा वर्ग एक दुसरे से बाते ( चेट ) करता है ये देखकर एक दिन मै भी एक महिला मित्र से बाते कर रहा था ....... जैसे ही उसे ये मालूम हुआ कि मै एक लेखक हु.... उसने भी वही कटाक्ष कर दिया.... एक लेखक होकर ऐसा काम ..... ये लेखक लेखक सुनकर  मेरे कान पक गए.... क्या लेखक इंसान नहीं होता....................
शायद हाँ  .....................लेखक वाकई में इंसान नहीं होता क्यों कि आम इंसान तो समाज में फैली कुरीतियों को बड़े ही सहज भाव से स्वीकार कर लेते है... उन्हें दूर करने की बजाय उनका हिस्सा बन जाते है..... और कह देते है.... हम भला क्या कर सकते है....
एक   लेखक ये सब सहन नहीं हो पाता.... वो अपने शब्दों के कटाक्ष से, अपनी लेखनी की तलवार से और अपने व्यंग्यो के हथियारों से समाज की इन कुरीतियों को दूर करने का निरंतर प्रयास करता रहता है.... उसका जीवन उसका अपना नहीं होता बल्कि समाज कि अमानत होता है.... मै ये कैसे भूल गया कि मै इंसान नहीं हु....मै तो एक लेखक हु.|

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