धर्म स्वार्थी होता है...


मेरे प्रिय मित्रो, यहाँ मै धर्म की आलोचना नहीं कर रहा हु अपितु मेरा वास्तविक अनुभव जिसने मुझे धर्म के बारे में अधिक गहराई से अवगत कराया..|

मानव एक सामजिक प्राणी है तथा समाज में रहकर वह नित्य अनेक कर्म करता रहता है ... 

बचपन की एक घटना याद आ गई जिसे मै आप सभी से बांटना चाहूंगा... इस घटना ने मुझे धर्म की वास्तविकता से परिचित करवाया और मेरा धर्म में विश्वास उत्पन्न हो गया...|

पिताजी अक्सर मुझे समझाया करते कि बेटा मै जो कुछ भी कर रहा हु वो तुम्हारे लिए ही तो है....मै पैसा कमा रहा हु...मेहनत कर रहा हु....इतना बड़ा घर बनवाया...इतनी सुख सुविधाए घर में उपलब्ध करवाई.....ये सभी तुम्हारे लिए ही तो है ताकि तुमारी जिन्दगी सुखी बने....वरना हमारा क्या है....|

कुछ इसी तरह के वाक्य मै अक्सर उनके मुख से सूना करता था.......|

एक दिन मै खेल रहा था और पिताजी पूजा पाठ कर रहे थे.....पूजा संपन्न होने के बाद जब वो पूजा कक्ष से बाहर आये तो मुझे समझाना शुरू किया ..बेटा, हर समय खेल में ध्यान देना अच्छी बात नहीं है...दिन में कुछ समय भगवान् को भी देना चाहिए......उनका ध्यान....उनका स्मरण करना चाहिए........मै तपाक से बोला..पिताजी आप जो कुछ भी करते हो वो मेरे लिए ही तो है......फिर ये पूजा पाठ भी मेरे लिए हुआ.....पिजाजी मुस्कुराए और बोले.......बेटा मेरे सारे क्रिया कलाप तुम्हारे और इस परिवार के लिए ही है लेकिन ये धर्म मेरे लिए है .....|

संसार में रहकर हम जो कुछ भी करते है उनमे से केवल धर्म ही भविष्य की व्यवस्था है.... अन्यथा सभी कुछ वर्तमान के लिए होता है......आप कहेंगे......हम आज जो कर्म करते है वो भविष्य के लिए ही तो होता है ...नहीं मित्रो...दो वर्ष उपरान्त या दस वर्ष उपरान्त की व्यवस्था वर्तमान की व्यवस्था ही है........वास्तविक व्यवस्था जो इस जीवन के पश्चात की है.......जो कि हम धर्म के रूप में नित्य करते है ....|

धर्म ही संसार का एक मात्र कर्म है जिसमे स्वार्थ छुपा है......स्व कल्याण का स्वार्थ.....तो आप भी इस भव से ऊपर उठकर पर भव के बारे में थोड़ा विचार कीजिये और थोड़ा स्वार्थी बन जाइए...|

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